वो सुबह की चाय ! !
सुबह सुबह मैं अपने कार्यालय की तरफ़ जा रहा था | रोज़ बस दिल में यह ख्याल रहता है की क्या ज़िन्दगी हो गई है, अपने घर वालो से दूर हैं और बस एक समान ही नित्य कर्म किए जा रहे हैं। कार्यालय जाना रात तक वहीँ रहना और रात को घर आकर खाना खाकर सो जाना ताकि अगले दिन सुबह फिर से कार्यालय जा सके। कैसी निरुत्साह सी ज़िन्दगी हो गई है।
आज जब घर से निकला तो बस यही सोच रहा था। "वोल्वो" बस में बैठा था, उसमे पूरे आईने होते हैं तो बाहर के वातावरण का आनंद लेते हुए जा रहा था। लेकिन बाहर भी कुछ ख़ास नही सिर्फ़ ठंडी ठंडी ऋतू के अलावा वही यातायात, वही भागते हुए लोग, वही तेज़ आवाज़ वाले भोंपू, यातायात संकेत पर उसे सुचारू ढंग से चलने के लिए खड़े नगर पाल गण (पुलिस)। इसी भीड़ में अचानक से कुछ अच्छा दिख जाए तो मन प्रसन्न हो जाता है और वही था जिसने मुझे यह चिट्ठा (वेब दैनिकी या ब्लॉग ) लिखने की प्रेरणा दी।
"पास ही की एक इमारत (बिल्डिंग) के दूसरे माले पर मेरी नज़र गई। वहां एक बंधू आलिंद (बालकनी) में बैठे हुए थे। उनके आस पास कुछ पौधे गमलों में लगे हुए थे जो की बहुत ही सलीके से वहां रखे थे। हमारे बंधू कुछ पढ़ रहे थे (सुबह का समय था तो मैंने मान लिया की वो अखबार पढ़ रहे होंगे) उसी पल एक स्त्री आलिंद में प्रविष्ट हुई और मुस्कुराते हुए बंधू को चाय (या कॉफी ) दी। और वो भी वहीँ पास की कुर्सी पर बैठ गई। "
दृश्य बहुत ही छोटा सा था लेकिन इसने आत्मविभोर कर दिया| इसमे जो प्यार था, जो आसपास का वातावरण था, उसने इसे नेसर्गिक रूप दे दिया था।
Thursday, March 12, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
तो एक बात तो तय है, अब आपकी उमर ही नहीं आपकी अंतरात्मा भी शादी के लिए प्रोत्साहन दे रही है. आपको जीवन में एक साथी की कमी महसूस होने लगी है जो घर जाने से और दोस्तों के साथ दो रुपये की चाय पीने से पूरी न होगी. आगे बढिए, फैसला लीजिये और जीवन में आगे बडिए.
ReplyDeletehindi main blogging ...accha laga yaar padhkar...keep going
ReplyDeleteare miyan ab to ghar basa liya hai tumne, wahi daudabhagi rehti hai ya subah ki pyali naseeb hoti hai? Ab to daftar wale bhi samajhdaar ho gaye honge, ghar jaldi aane ko milta hoga
ReplyDelete