Thursday, March 19, 2009

मुद्रास्फीति या महंगाई ( या यु कहें कि सस्ताई )..

प्रिय वित्त मंत्री जी,
आज ही पढ़ा कि मुद्रास्फीति की दर (इन्फ्लेशन रेट) अपने २० साल के निम्नतम स्तर पर आ गई है. सुना था यह पिछले हफ्ते २.४३ थी जो की अब ०.४४ हो गई है. सुनकर अच्छा लगा की अब वस्तुए सस्ती दरो पर मिलेंगी। जो पहले २ रुपए ४३ पैसे में मिलती थी वो वस्तु सिर्फ़ ४४ पैसे में मिल जायेगी। यही सोचकर निकल पड़ा कुछ खरीदने (बनिया हूँ ना तो सस्ता माल जितनी जल्दी हो सके ले लेना चाहिए )।
आइसक्रीम खाने की इच्छा हुई तो कॉर्नर हाउस की याद आई, बहुत पहले (करीबन १.५ साल पहले ) वहां की प्रसिद्द "चॉकलेट से मृत्यु" (death by chocolate) वाली आइसक्रीम खायी थी। उन दिनों उसकी कीमत ७५ रुपए हुआ करती थी। तो बस सोचा अब तो कम से कम आधी हो गई होगी। मुंह में सोचकर ही पानी आ रहा था। दिल अंगडाई ले रहा था. सपनो की नगरी सामने ही नज़र आ रही थी. वहाँ जाकर बिना कीमत देखे एक प्याला बनाने का हुक्म जारी कर दिया। पैसे देने की बारी आई तो पैरों तले ज़मीन निकल गई। इसलिए नही की कीमत बहुत ही कम हो गई थी बल्कि इसलिए की कीमत आसमान छू चुकी थी। अब एक "चॉकलेट से मृत्यु" की कीमत थी १२५ रुपए :O अब समझ में आया की इसका नाम "चॉकलेट से मृत्यु" क्यों रखा गया है :(

तो मंत्री महोदय मेरा प्रश्न यह था की जब आपने घोषणा कर दी है की महंगाई कम हो गई है और वो भी २० साल में सबसे कम तो फिर क्या यह सूचना इन कोने में रहने वाले कॉर्नर हाउस को नही दी गई। इन्होने कीमत घटने की अपेक्षा उसे और बढ़ा दिया है। अब ऐसे मन लुभावन चीजे हम जैसे गरीब अभियंताओ की पहुँच से दूर हो गई हैं।
कृपया इन दूकान वालो के ख़िलाफ़ कठिन से कठिन कार्यवाही की जाए और अगली बार से इनकी दूकान में भी आपके आदेश की सूची को चिपकाया जाए।
धन्यवाद !
-भारत देश का एक जागरूक नागरिक

Tuesday, March 17, 2009

भविष्य का भारत

माननीय प्रवीण मुतालिक गृह मंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं-

  • लड़किया बुर्के में हैं, नही नही बुरका नही घूँघट में हैं
  • वैलेंटाइन डे की जगह शादी और राखी जैसे महोत्सवों ने ले ली है
  • पति पत्नी साथ घुमते समय विवाह का प्रमाण पत्र साथ लेकर घुमते हैं
  • पब खुलने का समय सुबह १० बजे से शाम को बजे तक
  • मदिरा पान की जगह अब अनेको स्थानों पर गौ मूत्र शालाए खुल गयी हैं
  • विज्ञापनों से नारी पात्र गायब हो गए हैं, नारी उपयोग की वस्तुओ में भी नर (मर्द) ही प्रदर्शन करते नज़र रहे हैं
  • नाथूराम गोडसे की प्रतिमाये चौराहों पर लगी हुई नज़र रही हैं

Friday, March 13, 2009

गेंद बल्ले का खेल, चुनाव और आक्रान्ता ! !

भारतीय मुख्य संघ -2 (IPL- इंडियन प्रीमिएर लीग) की घोषणा हुई और कुछ ही दिनों बाद पाकिस्तान में श्री लंका के खिलाडियों पर आक्रान्ताओं ने आक्रमण कर दिया। यह ही काफ़ी नही था उसके कुछ दिनों बाद भारत के आम चुनाव की तारीखे भी आ गई। वैसे ही खिलाडियों की सुरक्षा की समीक्षा हो रही थी और चुनाव की घोषणा से नगर पाल दल (पुलिस) और सेना की नींद हराम होने वाली है। अब भा.मु .स. के मुख्य निष्पादन अधिकारी ललित मोदी ने आनन् फानन में बोल दिया की तारीखे नही बदलेगी बस सूची में कुछ परिवर्तन होगा, लेकिन अभी तक वो कुछ तय नही कर पाए हैं।
एक तरफ़ आतंकवादियों से खिलाडियों को खतरा है तो दूसरी तरफ़ चुनाव भी समय पर करवाने हैं, और दोनों के लिए सैन्य दल की आवश्यकता पड़ेगी। इसका हल शायद श्री ललित मोदी जी कुछ इस तरीके से भी निकाल सकते हैं।
खिलाडियों की पौशाक में बदलाव होगा।
"लोहे का टोप", "कवच नुमा वर्दी (गोली भेदी)", गले, कोहनी, घुटने और सीने को ढकने के लिए अलग से अभेद बचाव।
रात में आराम से देखने के लिए रात्री दृष्टि वाले ऐनक।
लोहे के टोप में श्रंगिका (एंटिना) भी लगा होना चाहिए जो की केंद्रीय सुरक्षा प्रणाली से जुडा होगा, जिससे खतरे का आभास होते ही सूचना तुंरत खिलाड़ी तक पहुँच जायेगी।
अन्तिम किंतु सूक्ष्म नही (last but not the least)-
हर्षित करने वाली बालाएं इस खेल का अभिन्न अंग हैं उन्हें इससे अलग नही रखा जा सकता, लेकिन हर्षित करने वाली बालाओं (चीयर लीडर्स ) पर उपरोक्त नियम लागू नही हो सकते ;-) तो उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें बन्दूक (sniffer rifle) दी जानी चाहिए।

Thursday, March 12, 2009

सुबह की चाय ! !

वो सुबह की चाय ! !

सुबह सुबह मैं अपने कार्यालय की तरफ़ जा रहा था | रोज़ बस दिल में यह ख्याल रहता है की क्या ज़िन्दगी हो गई है, अपने घर वालो से दूर हैं और बस एक समान ही नित्य कर्म किए जा रहे हैं। कार्यालय जाना रात तक वहीँ रहना और रात को घर आकर खाना खाकर सो जाना ताकि अगले दिन सुबह फिर से कार्यालय जा सके। कैसी निरुत्साह सी ज़िन्दगी हो गई है।

आज जब घर से निकला तो बस यही सोच रहा था। "वोल्वो" बस में बैठा था, उसमे पूरे आईने होते हैं तो बाहर के वातावरण का आनंद लेते हुए जा रहा था। लेकिन बाहर भी कुछ ख़ास नही सिर्फ़ ठंडी ठंडी ऋतू के अलावा वही यातायात, वही भागते हुए लोग, वही तेज़ आवाज़ वाले भोंपू, यातायात संकेत पर उसे सुचारू ढंग से चलने के लिए खड़े नगर पाल गण (पुलिस)। इसी भीड़ में अचानक से कुछ अच्छा दिख जाए तो मन प्रसन्न हो जाता है और वही था जिसने मुझे यह चिट्ठा (वेब दैनिकी या ब्लॉग ) लिखने की प्रेरणा दी।
"पास ही की एक इमारत (बिल्डिंग) के दूसरे माले पर मेरी नज़र गई। वहां एक बंधू आलिंद (बालकनी) में बैठे हुए थे। उनके आस पास कुछ पौधे गमलों में लगे हुए थे जो की बहुत ही सलीके से वहां रखे थे। हमारे बंधू कुछ पढ़ रहे थे (सुबह का समय था तो मैंने मान लिया की वो अखबार पढ़ रहे होंगे) उसी पल एक स्त्री आलिंद में प्रविष्ट हुई और मुस्कुराते हुए बंधू को चाय (या कॉफी ) दी। और वो भी वहीँ पास की कुर्सी पर बैठ गई। "
दृश्य बहुत ही छोटा सा था लेकिन इसने आत्मविभोर कर दिया| इसमे जो प्यार था, जो आसपास का वातावरण था, उसने इसे नेसर्गिक रूप दे दिया था।